मालव की संध्याएँ
मेघल अवसाद-लदी !
कोमल-मधु-याद बँधी —
सजल, शीत, बह बयार।
मन का सब व्यथा-भार
बह चले निराधार
निराकार...
मन में सुधि उतर चली ।
दूर-दूर की लहरी
व्यापक चली रोम-रोम ।
आनत काली बदली
ज्यों दाहक चैत में भी
नाप रही पूर्व व्योम —
‘होम, स्वीट होम' !
मैं खींच रहा हूँ आज अकाज लकीरें
आ भर दे उनमें रंग-रूप तू पी रे !
मैं तालहीन स्वरहीन छेड़ता वंशी,
तू भर दे उसमें नाद-माधुरी धीरे !
कुछ रिक्त हो चली दुनिया मेरे मन-सी।
कुछ रिक्त हो चली जगती इस जीवन-सी
तुम निज आर्द्रा घिर-घर कर क्षण-भर छा दो —
सन्तुष्ट हो चले हिय की प्यासी हंसी ।
तुम अलस-भाव से प्राण, मलार कँपा दो
जो बरस पड़े सहसा याँ सावन-भादों,
यों सरस हो उठे अवनि-दिशा-घर-अम्बर
हो जाएँ एक सब बिछुड़ी तन-मनसा दो !
आपाट लगे... हो गई निहाल प्रतीची
उस क्षितिज-कोर तक गीली गुलाल सींची
किसी प्रतीक्षिता ने हेमल-रेखा खींची।
निज बिथा सघन, घन छोरहीन तू कह ले
करव-पंखी, किरमिजी, असित मटमैले
यक्ष के विधुर उच्छ्वास गगन तक फैले।
बदली-गुंठन में विस्तृत वन-गिरि आवृत
घन नील लेख से क्षितिज रेख भी संवृत
अग-जग में विश्रुत मात्र निदारुण निभृत।
गोधूलि मेघमय, सुधा-करुण यह वेला
घर विहग लौटते, तिमिर उरग भी फैला
जा रहा पान्थ अश्रांत अशांत अकेला।