Last modified on 2 अगस्त 2020, at 17:58

छलना / प्रभाकर माचवे

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:58, 2 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभाकर माचवे |अनुवादक= |संग्रह=त...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हेमन्ती सन्ध्या है, सूरज जल्दी ही डूबा जाता है —
मन भी आज अकारज चिर-प्रवास से क्यों ऊबा जाता है ?
 
फ़सल कट गई, कहीं गड़रिया बचे-खुचे पशु हाँक रहा है,
सान्ध्य-क्षितिज पर कोई अंजन, म्लान-गूढ़ छवि आँक रहा है ।

बचे-खुचे पंछी भी लौटे, घर का मोह अजब बलमय है,
मानव से प्रकृति की छलना, प्रकृति से मानव छलमय है !