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गंगा / कैलाश गौतम

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गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है, वह जूझ रही ख़ुद से और बदहवास है।
न अब वो रंगोरूप है न वो मिठास है, गंगाजली को जल नहीं गंगा के पास है।

दौड़ा रहे हैं लोग इसे खेत-खेत में, मछली की तरह स्वयं तड़पती है रेत में।
बाँधों के जाल में कहीं नहरों के जाल में, सिर पीट-पीट रो रही शहरों के जाल में।
नाले सता रहे हैं पनाले सता रहे, खा खा के पान थूकने वाले सता रहे।
कुल्हड़ पड़े हैं चाय के पत्ते हैं चाट के, आखिर कहाँ ये जाएँगे धंधे हैं घाट के।
भीटे की तरह बाप रे कूड़े का ढेर है, यह भी है कोई रोग कि ऊपर का फेर है।
असहाय है लाचार है मजबूर है गंगा, अब हैसियत से अपनी बहुत दूर है गंगा।
क्या रही क्या हो गई हैरान है गंगा, शीशे में खुद को देख परेशान है गंगा।
मैदान ही मैदान है मैदान है गंगा, कुछ ही दिनों की देश में मेहमान है गंगा।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है।

पक्का है घाट ठाठ से अहरा लगा रहे, राखी बहा रहे यहीं हाँडी बहा रहे।
जो कुछ बचा है झूठा सो डाल रहे हैं, पत्तल में सब लपेटकर उछाल रहे हैं।
बच्चों का बिछौना भी यहीं साफ हो रहा, गलियों का घिनौना भी यहीं साफ हो रहा।
जूते में लगा गोबर गंगा में धो रहे, आराम बड़ी चीज है मुँह ढँक के सो रहे।
गंगा के पास मुँह नहीं है आजमाइये, सीधी बहाइये इसे उलटी बहाइये।
गंगा की ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है यार, बस गंदगी ही गंदगी है
गंदा सड़ा अख़बार है गंगा में बह रहा, कचरा है खर पतवार है गंगा में बह रहा।
कीचड़ है बदबूदार है गंगा में बह रहा, कबका मरा सियार है गंगा में बह रहा।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है।

आई थी बड़े शौक से ये घर को छोड़कर, विष्णु को छोड़कर के शंकर को छोड़कर।
खोई थी अपने आप में वो कैसी घड़ी थी, सुनते ही भगीरथ की टेर दौड़ पड़ी थी।
नागिन-सी-डोलती कहीं हिरनी-सी उछलती,-आई है मेरे-गाँव-तक ये गिरती सम्हलती।
थकती थी बैठती थी लेती थी साँस फिर, झट कूदती थी। आगे दो चार बाँस फिर
बोझा लिये थी ढाल पर लड़की देहात की, घाटी में नाचती। रही घोड़ी बरात की।
बेकरार-हो-गए करार प्यार से, कल-कल, कल-कल, कल-कल, कल-कल धार-धार-से।
टीलों की प्यास मन से बुझाती चली गंगा, पेड़ों की छाँह छाँह छहाती चली गंगा।
घर-घर का सारा पाप बहाती चली गंगा, उजड़े हुए नगर को बसाती चली गंगा।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है।

गंगा को भगीरथ ने भगीरथ बना दिया, जंगल में हुआ मंगल तीरथ बना दिया।
यों ही नहीं हम पूजते हैं फूल पान से, गंगा ने प्यास रख ली पराशर की शान से।
कितनी-जटिल-थी-देखिये-कितनी-सरल-हुई, कुन्ती-की कर्ण जैसी समस्या भी हल हुई।
केवट ने भी गंगा की बदौलत बना लिया, आई न काम सारी अयोध्या दिखा दिया।
भीष्म की ही माँ नहीं यह माँ है देश की, गरिमा है पूर्वजों की ये गरिमा है देश की।
मुक्ति का है द्वार हमेशा ये खुला है, काशी गवाह है कि यहाँ सत्य तुला है।
केवल नदी नहीं है संस्कार है गंगा, पर्व है ये गीत है त्यौहार है गंगा।
केन्द्र है ये पुण्य का आधार है गंगा, धर्म जाति देश का शृंगार है गंगा।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है।

जिससे भी मिली गंगा आदर से मिली है, नीचे उतर के दौड़ के सागर से मिली है।
घर घर में आर पार की माला इसी से है, जीवन का राग रंग उजाला इसी से है।
मीरा की सिर्फ एक मनौती में आगई, रैदास ने चाहा तो कठौती में आ गई।
ने भेदभाव है यहाँ न जात पाँत है, न ऊँच नीच है यहाँ न छूत छात है।
गणिका का भी धोती है पाप गर्व से गंगा, मिलती रोज रोज नये पर्व से गंगा।
हम भी तो पाप करते है गंगा के भरोसे, काशी में जाके मरते हैं गंगा के भरोसे।
काशी में बड़े मान से सम्मान से गंगा, सजती थी रोज रोज दीपदान से गंगा।
भरती थी दूध फूल और पान से गंगा, बहती थी सुबह शाम इत्मीनान से गंगा।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है।

शंकर से भी ज्यादा है प्यार पारबती से, हँस-हँस के निभाती है यार पारबती से।
दोनो में आज तक कभी ठन-ठन नहीं हुई, ठन-ठन नहीं हुई कभी अनबन नहीं हुई।
परिवार में रहती है ये परिवार की तरह, पानी में नाव, नाव में पतवार की तरह।
रहती है साथ साथ हर एक काम में गंगा, है पारबती घाम में तो घाम में गंगा।
देखा है मैंने जाके गाँव पारबती के, गंगा पखारती है पाँव पारबती के।
घर पारबती का है गंगा का राज है, गंगा की बदौलत ही यहाँ घर की लाज है।
हँस हँस के महादेव को हर हर पुकारती, लेती है बलैया सदा लेती है आरती।
अस्सी निहारती इसे वरुणा निहारती, गंगा बड़ी उदार तू मुर्दा भी तारती।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है।

न पीने के लिये है न नहाने के लिये है, गंगा भी आज खाने कमाने के लिये है।
हर घाट यात्री को फँसाने के लिये है, बोरे में बँधी लाश छिपाने के लिये है।
गंगा में आज नाव दिखाने के लिये है, हथियार और दारू बनाने के लिये है।
आने के लिये है न वो जाने के लिये है, कुछ रात गए खास ठिकाने के लिये है।
गुण्डे हैं बेहयाई है नौका विहार में, छनती हुई ठंडाई है नौका विहार में।
रबड़ी है मलाई है नौका विहार में, सावन की घटा छाई है नौका विहार में।
पर्वत है और राई है नौका विहार में, जितनी गलत कमाई है नौका विहार में।
मालिश के लिये नाई है नौका विहार में, छप्पन छुरी भी आई है नौका विहार में।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है।

जो-कुछ-भी-आज-हो-रहा-गंगा-के-साथ-है, क्या-आप-को पता नहीं कि किसका हाथ है।
देखें तो आज क्या हुआ गंगा का हाल है, रहना मुहाल इसका जीना मुहाल है।
गंगा के पास दर्द है आवाज़ नहीं है, मुँह खोलने का कुल में रिवाज़ नहीं है।
गंगा नहीं रहेगी यही हाल रहा तो, कब तक यहाँ बहेगी यही हाल रहा तो
अब लीजिये संकल्प ये बीड़ा उठाइये, गंगा पर आँच आ रही गंगा बचाइये।
गंगा परंपरा है ये गंगा विवेक है, गंगा ही एक सत्य है गंगा ही टेक है।
गंगा से हरिद्वार है काशी प्रयाग है, गंगा ही घर की देहरी गंगा चिराग है।
गंगा ही ऊर्जा है गंगा ही आग है, गंगा ही दूध-पूत है गंगा सुहाग है।
गंगा की बात क्या करूँ गंगा उदास है ।