ढ़ल गयी फिर शाम देखो ढह गया दिन
भूल जाती है सुबह,
सुबह निकलकर
और दिन दिनभर पिघलता याद में।
चांदनी का महल
हिलता दीखता है
चाँद रोता इस क़दर बुनियाद में।
कल मिलेंगे आज खोकर कह गया दिन।
ढ़ल गयी फिर शाम देखो ढह गया दिन।
रोज अनगिन स्वप्न,
अनगिन रास्तों पर,
कौन किसका कौन किसका क्या पता?
हाँ मगर दिन के लिए,
दिन के सहारे,
रात दिन होते दिखे हैं लापता।
एक मंजिल की तरह ही रह गया दिन।
ढ़ल गयी फिर शाम देखो ढह गया दिन।
दूर वह जो रेत का तट
है खिसकता
देखना मिल जाएगा एक दिन नदी में।
नाव मिट्टी की लिए
इतरा रहे जो
दर्ज होना चाहते हैं सब सदी में।
किन्तु घुलना एक दिन कह बह गया दिन।
ढ़ल गयी फिर शाम देखो ढ़ह गया दिन।