Last modified on 21 सितम्बर 2008, at 00:30

रहस्य / अजित कुमार

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:30, 21 सितम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजित कुमार |संग्रह=अंकित होने दो / अजित कुमार }} म...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मन की सौ परतों के भीतर

है एक रहस्य छिपा मुझमें


वह किरनों-सा तीखा,पैना,
वह हिरनों-सा चचल, आतुर,
वह सपनों-सा मोहक, मादक,
वह अपनों-सा अपना, प्रियतर
मुझमें है एक रहस्य छिपा
मन की सौ परतों के भीतर ।
वह मुझे मूक कर देता है,
वह मुझमें अनगिन स्वर भरता,
निश्चल, निस्पन्द बनाता है,
जीवन भर की जड़ता हरता,
है मुझमें एक रहस्य छिपा
मन के भीतर सौ परतों में ।
कितना ही उसे दबाता हूँ
वह उभरा-उघरा आता है,
कितना ही उसे बताता हूँ
वह व्यक्त नहीं हो पाता है,
है छिपा हुआ मन के भीतर
सौ परतों में कोई रहस्य ।
फिर कभी-कभी ऐसा होता-
मन है ? परतें हैं ? या रहस्य ?:
यह जान नहीं मैं पाता हूं;
पर मुझे ज्ञात इतना अवश्य-
उसके ही कारण है मेरी
अनुरक्ति जगत में, जीवन में ।
है एक रहस्य छिपा मुझमें
सौ परतों के भीतर मन में ।