चला था घर से जब
आँख में आस थी, उम्मीद थी
उमंग थी,
बेहतर बन जाने की।
दिए थे सपने
जिसने,
दिखता था उस जैसा
मधुर कंठ था मीठे बोल
और आश्वासन था
उसका भारतीय मूल-
" देखो मैं हूँ पी आई ओ*
संग मेरे तुम हो लो,
उभरो दलदल से,
जीवन अपना बदलो।
इतनी मेहनत पर
डॉलर बहुत पाओगे
य़हाँ रहोगे, जीवन भर
बस यूँ ही रह जाओगे।
दूर देश है एक
वहाँ तुम जैसे ही बसते हैं
आवश्यकता हीरे की तुमसे
वहाँ भारतवासी पुजते हैं।
कर मुझ पर विश्वास
देख मैं तुझ जैसा ही तो हूँ
मेरे दादा इसी देश के
फिर तो भाई तेरा हूँ।
पासपोर्ट, वीज़ा, परमिट,
सब काग़ज़ मैं कर दूँगा
चल तू मेरे साथ,
तेरी मैं जेबें ही भर दूँगा"
और पड़ोसी भी था कहता-
मत घबरा,
खुला एक दफ्तर है रहता
मदद करेगा वह भी
देशवासी हैं अपने ही वे
संग होंगे
कठिनाई
जो हुई कभी।
और यही कुछ आश्वासन ले
चला, पाँव पसारा...
माँ की आँख भरी जलधारा
पिता कि कोर भी नम थीं
दूर कष्ट पर उनके होंगे
यही आस क्या कम थी।
कौतुक रस्ते भर भी देखे
देख-देख भरमाया।
मध्य रात्रि उतरा विमान
तब
गहन अँधेरा पाया।
क्या था वह संकेत कहीं
उस आसन्न तिमिर का
जीवन पथ की राहों में
पड़ने वाले कहर का।
होना था जो शुरु
सिलसिला
चिर अनंत श्रम का...
अंतडियाँ जब शोर मचाती
सूखी रोटी पाता
हाड़ तोड़ मेहनत भी करता
डालर एक न पाता,
सब कुछ जमा है खाते में,
पी आई ओ कहता जाता।
इतना जाहिल भी तो न था
सोच-सोच रह जाता
अगूंठा, हस्ताक्षर कहीं ना,
खुला गया कहाँ यह खाता।
कार्यपत्र की मांग करी जब
पासपोर्ट भी गंवाया
मजदूरी की मांग करी तो
जा थाने पहुँचाया
उससे ही कुछ और वहाँ थे
फिर भी तो विरुद्ध
एक आस छोटी-सी ही तो थी
जीवन बना क्यूँ युद्ध।
गिरते पड़ते ढूँढ ढांढ कर
दफ्तर तो जा पाया
पर दमड़ी तो पास नहीं
फिर हमदम कोई न पाया
जो मालिक
संभ्रांत नागरिक,
उसे सही ही पाया
जो भूखा...
मत लालच कर
उसको यह समझाया
सकुचा सहमा,
मिला मुझे जब
अश्रुसिक्त चेहरा था बस वह
लिए कईं सवाल-
घर जाकर कह दूँ कैसे मैं
बैरंग लौट चला आया हूँ
कैसे जानूँ किस गलती की
आज सज़ा पाया हूँ?
उस छले हुए की
दशा देख
यह सोच-सोच रह जाती
छले गए जो सदी से पहले**
उन-सा ही है
या बदतर है
उनके दुश्मन दूर देश के
अब अपने घर के हैं।
स्वार्थ सिद्धि को ले आते हैं
बहलाकर फुसलाकर
अपने सपने पूरे करने
चिराग और का जलाकर।