ओ महानगर!
कैसे विष्वास करेें
हम तुम्हारी नियति पर?
एक-एक रेषा चमकाते
संचालित करते हम तुम्हंे
पर षहर के नक्षे में
हमारा कहीं नाम नहीं
बित्ता भर ज़मीन नहीं
पांव टिका लेने को
रह गए हम तुम्हारी
अवैध संतति ही!
अधिकारों से वंचित
कर्त्तव्य बोझ से दबे
कूड़े के ढेर से
होते निश्कासित हम
बार-बार, परिधि पार।
कब तक चलेगा यह
ओ महानगर!