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कंकड़ छांटती / आत्मा रंजन

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भागते हांफते समय के बीचोंबीच
समय का एक विलक्षण खंड है यह
अति व्यस्त दिन की
सारी भागमभाग को धत्ता बताती
दाल छांटने बैठी है वह
काम से लौटने में उसके विलम्ब के बावजूद
तमाम व्यस्तताओं को
खूंटी पर टांग दिया है उसने
पूरे इत्मीनान से टांगे पसार
बैठ गई है गृहस्थ मुद्रा में
हाथ मुंह धोने, कपड़े बदलने जैसी
हड़बड़ी नहीं है इस समय
एक आदिम ठहराव है
तन्मयता है पूरी तल्लीनता
पूरे मन से डूबी हुई एक स्त्री
एक-एक दाने को सौंप रही
उंगलियों का स्निग्ध स्पर्श
अन्न को निष्कंकर होने की
गरिमा भरी अनुभूति
स्वाद के तमाम रहस्य
और भी बहुत कुछ...

एक स्त्री का हाथ है यह
दानों के बीचोंबीच पसरा स्त्री का मन
घुसपैठिए तिनके, सड़े पिचके दाने तक
धरे जाते हुए
तो फिर कंकड़ की क्या मजाल!
उसकी अनुपस्थिति में
एक पुरुष को
अनावश्यक ही लगता रहा है यह कार्य
या फिर तीव्रतर होती जीवन गति का बहाना

उसकी अनुपस्थिति दर्ज होती है फिर
दानों के बीचोंबीच
स्वाद की अपूर्णता में खटकती
उसकी अनुपस्थिति
भूख की राहत के बीच
दांतों तले चुभती
कंकड़ की रड़क के साथ
चुभती रड़कती है उसकी अनुपस्थिति
खाद्य और खाने की
तहजीब और तमीज़ बताती हुई

एक स्त्री का हाथ है यह
जीवन के समूचे स्वाद में से
कंकड़ बीनता हुआ!