कैसी नित नई यह प्यास
हो गया प्रति कण्ठ में
जिसका कि अब आवास
तृषित छूटे हैं उसी की ओर
यति कहाँ — समझें कि यह निशि भोर
चाहते भर हैं कृपा की कोर
उठ रहा प्रति रोम से गति रोर —
जग भर का यही अभ्यास