बह जाता है
कितना ओज
उस चेहरे को निहारने में
एकटक
भीतर से भरा इनसान
कितना कुछ छोड़ आता है
उस दूसरे ठिकाने पर
खोजने लगता है फिर
उसी छोड़े हुए को
अपने सिरहाने
नहीं है जहाँ कुछ भी
आंसुओं की नमी के अलावा
हाँ, बचा हुआ है शायद वहाँ
भी थोड़ा
और अधिक ख़ालीपन
ख़ाली होना
इस विधि से
हर बार
और कहना ख़ुद से,
‘आजिज़ आई इस प्रेम से’
ख़ालीपन को भरते जाना
उदास नग़्मों से
और भी ख़ाली होने के लिए
काश जानती पहले
प्रेम रखता है अपने गर्भ में ऐसे कई सन्ताप
तब भी क्या रोक पाती
देखना
उस नायाब चेहरे को
यूँ
एकटक