रात !
अँधेरे की पालकी में
नितान्त अकेली तू...
कोई प्यास आती है
जो चूमकर तेरे कपोल
भड़काती है
और अधिक तेरी अतृप्ति को...
फिर मुड़ जाती है वापस...
दे पाता तुझे अगर
मेरी साँस
मेरे शब्द
मेरी जिजीविषा...
पी जाता
तेरी देह अगर
प्यास के आने से पहले तो
कभी न मुड़कर जाती वह...
रात !
सुबह तक फूटती
तू एक कली-सी !