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घर के अंदर रही,घर के बाहर रही/ जहीर कुरैशी

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घर के अन्दर रही, घर के बाहर रही
जिन्दगी की लड़ाई निरंतर रही

सत्य की चिलचिलाती हुई धूप में
एक सपनों की छतरी भी सिर पर रही

वो इधर चुप रही मैं इधर चुप रहा,
बीच में, एक दुविधा बराबर रही

रोक पाई न आँसू सहनशीलता
आँसुओं की नदी बात कहकर रही !

बीज के दोष को देखता कौन है,
उर्वरा भूमि यूँ भी अनुर्वर रही

काम आती नहीं एकतरफ़ा लगन
वो लगन ही फली, जो परस्पर रही

आज भी मोम-सा है ‘अहिल्या’ का मन
देह, शापित ‘अहिल्या’ की पत्थर रही !