Last modified on 25 अगस्त 2020, at 12:10

आँखों से मोहब्बत के इशारे निकल आए / मंसूर उस्मानी

Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:10, 25 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मंसूर उस्मानी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आँखों से मोहब्बत के इशारे निकल आए
बरसात के मौसम में सितारे निकल आए

था तुझ से बिछड़ जाने का एहसास मगर अब
जीने के लिए और सहारे निकल आए

मैं ने तो यूँही ज़िक्र-ए-वफ़ा छेड़ दिया था
बे-साख़्ता क्यूँ अश्क तुम्हारे निकल आए

जब मैं ने सफ़ीने में तिरा नाम लिया है
तूफ़ान की बाहोँ से किनारे निकल आए

हम जाँ तो बचा लाते मगर अपना मुक़द्दर
इस भीड़ में कुछ दोस्त हमारे निकल आए

जुगनू इन्हें समझा था मगर क्या कहूँ 'मंसूर'
मुट्ठी को जो खोला तो शरारे निकल आए