Last modified on 27 अगस्त 2020, at 12:27

मनुष्य / रामधारी सिंह "दिनकर"

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:27, 27 अगस्त 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मनुष्य
कैसी रचना! कैसा विधान!

हम निखिल सृष्टि के रत्न-मुकुट,
हम चित्रकार के रुचिर चित्र,
विधि के सुन्दरतम स्वप्न, कला
की चरम सृष्टि, भावुक, पवित्र।

हम कोमल, कान्त प्रकृति-कुमार,
हम मानव, हम शोभा-निधान,
जानें किस्मत में लिखा हाय,
विधि ने क्यों दुख का उपाख्यान?
कैसी रचना! कैसा विधान!


कलियों को दी मुस्कान मधुर,
कुसुमों को आजीवन सुहास,
नदियों को केवल इठलाना,
निर्झर को कम्पित स्वर-विलास।

वन-मृग को शैलतटी-विचरण,
खग-कुल को कूजन, मधुर तान,
सब हँसी-खुशी बँट गई,
रूदन अपनी किस्मत में पड़ा आन।
कैसी रचना! कैसा विधान!


खग-मृग आनन्द-विहार करें,
तृण-तृण झूमें सुख में विभोर,
हम सुख-वंचित, चिन्तित, उदास
क्यों निशि-वासर श्रम करें घोर?

अविराम कार्य, नित चित्त-क्लान्ति,
चिन्ता का गुरु अभिराम भार,
दुर्वह मानवता हुई; कौन
कर सकता मुक्त हमें उदार?

चारों दिशि ज्वाला-सिन्धु घिरा,
धू-धू करतीं लपटें अपार,
बन्दी हम व्याकुल तड़प रहे
जानें किस प्रभुवर को पुकार?

मानवता की दुर्गति देखें,
कोई सुन ले यह आर्त्तनाद,
कोई कह दे, क्यों आन पड़ा
हम पर ही यह सारा विषाद?

उपचार कौन? रे! क्या निदान?
कैसी रचना! कैसा विधान!

१९३२