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देखते-देखते / रोहित रूसिया

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देखते-देखते क्या से क्या हो गया
आदमी वह पुराना
कहाँ खो गया

अब कहाँ लोरियाँ
कौन नादान अब
बच्चे भी तो नहीं लगते
अनजान अब
काश मैं फिर से
बचपन की सीढ़ी चढूँ
पूरे, भोले वह सारे मैं अरमाँ करूँ
हँस के बोला ये बचपन-
कि नादान सुन
अब नहीं छेड़ वो
जो कि बीती है धुन
अब न बच्चे हैं वह
ना वह नादानियाँ
न ही छुट्टी के पल की
वो आज़ादियाँ
बच्चों से भी तो बचपन जुदा हो गया

एक दिन यूँ लगा
अब के यूँ भी करें
दिल परेशान को
पुरसुकूं भी करें
अपने गाँवों की गलियों में
घूमे ज़रा
बीते लम्हों में चाहा
कि जी ले ज़रा
बैठकर शाम
कटती थी चौपाल पर
बतकही चलती थी
देश के हाल पर
जब गया तो लगा
अब न वह बात है
और सब खो गया
बस बचा हाट है
कौन व्यापार का ये ज़हर बो गया

रिश्ते सारे कभी
लगते अपने ही थे
काका बाबा और फूफा
सब अपने ही थे
सबके साझे सफ़र
और मंज़िल जहाँ
कितनी आसान लगती थी
मुश्किल वहाँ
पहले तेरा मेरा करना
व्यापार था
फ़िर नया नाम ही इसका
व्यवहार था
अब तो भाई भी भाई से
ग़ाफ़िल हुआ
स्वार्थ जब से है
रिश्तों में शामिल हुआ
पैसा जब से जहाँ में खुदा हो गया

आदमी वह पुराना कहाँ खो गया