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नाट्यशाला / शशिप्रकाश

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नाट्यशाला के अन्धेरे में
तुम्‍हें लगता है कि अकेले हो वहाँ तुम
आसपास बैठे लोगों की उपस्थिति को
जैसे एकदम न महसूस करते हुए ।

मंच पर प्रकाश रच रहा है जादू ।
कभी वहाँ नीम अन्धेरा होता है
कभी मद्धम रोशनी
तो कभी पूरा मंच नहाया हुआ रोशनी से ।

कभी प्रकाश-वृत्त केन्द्रित होता है
किसी एक पात्र पर और कभी
एक विचित्र ब्रेष्‍टीय अलगाव-प्रभाव रचते हुए
उतर आता है दर्शकों के बीच और
नाटक फिर वहाँ चलने लगता है ।

या फिर नीचे फैले अन्धेरों के बीच से
कोई दर्शक उठकर मंच पर पहुँच जाता है और वहाँ जारी
उस नाटक का हिस्‍सा बन जाता है
जिसके आदि-अन्‍त का कुछ पता नहीं चलता ।
और यूँही अचानक, न जाने कोई
मध्‍यान्‍तराल आता है, या अन्‍त,
प्रकाश वृत्त आकर टिक जाता है
अप्रत्‍याशित तुम्‍हारे ऊपर ।

तुम्‍हें एक संगीत रचना प्रस्‍तुत करनी है
ऐसा तुम्‍हें लगता है।
तुम्‍हें नहीं पता कि
कब और कैसे तुम अपने को मंच पर पाते हो
अपने पुराने वायलिन के साथ ।

तुम जानते हो कि सामने फैला अन्धेरा निर्जन नहीं है ।
विचारों की एक भीड़ उमड़ती है
पर उससे भी अधिक तुम पाते हो
एक दृढ़ संकल्‍प, भावावेगों का एक ज्‍वार
और आँसुओं, दुख, क्रोध और स्‍मृतियों की तरह
कुछ उमड़ता-घुमड़ता हुआ
और फिर
तुम एक बहुवर्णी, बहुस्वरीय सिम्‍फ़नी रचते हुए
उसमें उतरते चले जाते हो
डूबते हुए, बहते हुए, उतराते हुए...
कि सहसा एक आवाज़ गूँजती है
विस्‍फोट की तरह ।

तुम्‍हारे वायलिन का एक तार टूट गया होता है ।
लोग इन्‍तज़ार करते हैं कि
तुम रुकोगे और पीछे से नया वायलिन उठाओगे ।
पर तुम रुकते नहीं हो ।
आँखें बन्‍द करके
बस तीन तार पर ही
तुम अपनी संगीत यात्रा जारी रखते हो ।

फिर सहसा टूटता है एक और तार
फिर भी तुम रुकते नहीं
और वायलिन के दो तारों से ही चमत्‍कार-सा रचते हुए
प्रस्‍तुत करते हो जादुई प्रभाव वाला सिम्‍फ़निक कम्‍पोज़ीशन
जिसे अविस्‍मरणीय तो नहीं कहा जा सकता
क्‍योंकि बहुत अच्‍छी और सुन्‍दर चीज़ें भुला दी जाती हैं
तभी यह दुनिया अपनी लीक पर चलती रह पाती है
और ज़मीर से किए गए करार तोड़ते रहने के बावजूद
बहुत-से लोग चैन की नींद सो पाते हैं ।

तुम मंच से उतरते हो अपना पुराना, दो टूटे तारों वाला वायलिन
एक बच्‍चे को थमाते हुए ।
‘जो कुछ है उससे ही संगीत पैदा करना होगा’
— तुम्‍हें सुनकर लोग सोचते हुए
नाट्यशाला से बाहर निकलते हैं ।

पूरी नाट्यशाला अब रोशनी में
नहाई हुई है
लोग घरों की ओर जा चुके हैं ।
तेज़ रोशनी में
अकेले बैठे हो तुम न जाने कबसे
कि चौकीदार आकर हौले-से
तुम्‍हारे कन्‍धे पर थपकी देता है,
“भौत टैम हो गया साहब,
अब तो साढ़े बारह की आख़िरी लोकल भी
आने वाली ही होगी ।”

एक घटना-प्र‍संग —
इत्‍झाक पर्लमैन एक विश्‍व-प्रसिद्ध इज़रायली-अमेरिकी वायलिन वादक हैं। एक बार उन्‍होंने अपनी एक सिम्‍फ़नी बजानी ही शुरू की थी कि उनके वायलिन का एक तार टूट गया। बीच में रुककर नया वायलिन लेने की जगह उन्‍होंने आँखें बन्‍द करके, एकदम डूबकर तीन तार के वायलिन पर ही अपना वादन जारी रखा। तीन तारों से कोई सिम्‍फ़निक कम्‍पोज़ीशन प्रस्‍तुत करना बेहद कठिन है, लेकिन पर्लमैन ने उस रात अपनी सर्वश्रेष्‍ठ और अविस्‍मरणीय प्रस्‍तुति दी। भावाभिभूत लोग खड़े होकर तालियाँ बजाते रहे। शोर थमने के बाद पर्लमैन ने बस एक वाक्‍य कहा,“जो कुछ भी हमारे पास है, हमें उसीसे संगीत पैदा करना होता है।”