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सुबह / कुलदीप कुमार

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आँख खुली
तो नहीं दिखा
तुम्हारा नींद से लहूलुहान चेहरा
नहीं सुनाई दी
उठती-गिरती साँसों की चुप्पा आहट

दोनों तकिये थे मेरे ही सिर के नीचे
रज़ाई भी नहीं गिरी थी पलँग के उस पार
एक भी ग़ायब नहीं
पाँचों अख़बार बालकनी में पड़े थे
गले में भी नहीं चुभ रही थीं
रात में गिलास के साथ तोड़ी हुई बातें
रसोई में पड़ी थी ख़ाली केतली उलटी

लो
हो ही गयी
एक और सुबह
तुम्हारे बिना