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मेरा कमरा / कुलदीप कुमार

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मैं इस कमरे में हूँ
उसी तरह
जैसे इस शरीर में

मैं जब उदास गुमसुम होता हूँ
या मुस्कुराता हूँ
या फिर जब खिसियानी हँसी से
ख़ुद को विश्वास दिलाता हूँ
कि
किसी न किसी अर्थ में ज़रूर
मैं भी औरों की तरह दुनिया के लिए
कारामद हूँ
तब मेरे शरीर की तरह ही यह
कमरा भी हिलता है

इस कमरे के चप्पे-चप्पे को मैंने टटोला है
इसकी गर्द में अपनी गन्ध डाली है
इसकी आत्मा पर बाकायदा
मेरी खरोंचों के निशान हैं
यहाँ मैंने मारा और प्यार किया
प्यार किया और मारा

यह कमरा नहीं
पुराने ख़तों का पुलिन्दा है
किसी याद न की जा सकने वाली
मारपीट में फटी क़मीज़ है
मेरे मुँह से निकली पहली गाली है
जो मैंने उस लड़की को दी

यह कमरा नहीं एक टेढ़ा शीशा है
जिसमें कई शक्लें एक साथ दिखती हैं
मैं हाथ चला बैठता हूँ
और वे ग़ायब हो जाती हैं
ज़ख़्मी छोड़कर

यह कमरा नहीं
बरसों से जोड़ी हुई किताबें हैं
जिन्हें पढ़ने का वक़्त
अब कभी नहीं मिलेगा

मैं इस कमरे में रहता रहूँगा
उसी तरह
जैसे इस जर्जर शरीर में