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जाना / कुलदीप कुमार

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वह जो चला गया
क्या वह
वाकई चला गया ?

उनींदी आँखों की सारी नींद पीछे छोड़कर
गाते-गाते अचानक उठकर
अधूरे गीत के सुर गले में भरकर
चला गया?

जाते वक़्त क्या उसने नहीं छोड़ी कोई भी ख़ुशबू
नहीं की कुछ भी बातें
क्या कुछ भी नहीं बोला
उन चीज़ों के बारे में जिन्हें वह भूलना चाहता था
क्या वह इतना बेज़ुबान हो गया था
जाते वक़्त?

वह
जिसके आते ही घर की दीवारें काँपने लगती थीं
जिसके होने से
घर का होना साबित होता था
जो जहाँ था
वहीं घर था
लेकिन यह भी तो सच है
कि

अमलतास के फूल उसके कहने से नहीं खिलते थे
उसके कहने से नहीं होती थी रात की रानी सुहागन
न ही उसके कहने से
कभी तारों ने अपनी दिशा बदली

तो फिर
वह क्या था?

वह जो चला गया
और
नहीं छोड़ गया अपनी ख़ुशबू भी

लालटेन की चिमनी के चटखने की आवाज़ करते हुए
जब चन्द्रमा तरेड़ खाता है
जब तारे बिलबिलाते हैं और
चाँदनी निर्लज्ज अट्टहास करती है
तब
दसों दिशाओं से यही सवाल गूँजता हुआ लौट कर आता है
कौन था जो चला गया?

कोई नहीं
बस एक ख़याल
एक स्वप्न
एक शबीह