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जाने दो / कुलदीप कुमार

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जाने दो
उन हवाओं को
जो हमारे अन्तरतम से होकर
गुजर गयीं
उन स्मृतियों को
जो अस्तित्व की सूखी धार को
अमृत से सींच कर
विलीन हो गयीं एक अदृश्य आकाशगंगा में
उन विदेह संकल्पों को भी
न रोको
जो देह की कारा को तोड़
फ़रार हो गये हैं

सबको जाने दो

कोई यहाँ सदा के लिए नहीं आया है
किसी के पास भी
उस ख़ज़ाने की चाबी नहीं है
जिसमें आत्मा की रत्न-मंजूषा रखी है
और जिसके चारों ओर
पाप के मणिमय नाग पुकारते हुए
पहरा दे रहे हैं

न प्रेम हमेशा के लिए है
न नफ़रत

न ही किसी के साथ हमेशा रहा जा सकता है
न ही किसी से सब कुछ कहा जा सकता है

जाने दो
शब्दों को भी जाने दो
भावनाओं को भी
कामनाओं को भी

सच को भी
झूठ को भी

बस बचा रहने दो
एक मुट्ठी भर
अवसाद