हर हर मृडेश हे प्रलयंकर!
मदघूर्ण-निशामणि नर-कपाल
प्रज्वलित-नेत्र खप्पर-विशाल
तुम पुलक-पुलक धृत-मुंडमाल
उद्धत विराट ताण्डव-तत्पर।
तुम शुभ्र-वदन उज्ज्वल-निकेत,
गणपति-हिमाद्रि-तनुजा-समेत,
पार्षद-परेश! बहु भूत-प्रेत
ले, प्रलय-राग के रचते स्वर।
परिधान-पिंग प्रिय व्याघ्रचर्म,
हो प्रथित रुद्र, भीष्मोग्र-कर्म
किसको अवगत हो सका मर्म?
तुम प्रलयंकर भी हो शंकर।
मंदर-मंथन से जब विह्वल
उगला समुद्र ने हालाहल,
तुम जो न दया करके, शितिगल!
कैसे होते ये अमर, अमर?
क्षण भर उचटा चिर-योग-शयन,
खोल त्र्यंबक तुमने त्रिनयन,
प्रकटे स्फुलिंग, जल मरा मयन,
तुमको अजेय क्या, योगीश्वर?
तोड़ो समाधि फिर एक बार,
हिल उठें अद्रि, रवि हो तुषार,
प्रज्वलित चंद्र उगले अँगार,
काँपें त्रिलोक-जल-थल थर-थर।
फुंकार उठें पन्नग कराल,
फैले अग-जग में गरलज्वाल,
नाचे प्रमत्त हो प्रलयकाल
दे ताल तुम्हारे डमरू पर।
विद्युत् द्रुतगति से तड़क-तड़क
अभ्रस्थ इरम्मद कड़क-कड़क
टूटें, अँगार उगलें निधड़क,
विध्वस्त विश्व हो क्षार-निकर।
हो अस्त-व्यस्त जगती समस्त,
टकराएँ ग्रह निज कक्ष-न्यस्त,
विधि-विष्णु मूढ़, विबुधेश त्रस्त,
चक्रांग चकित, काँपें खगवर।
हो रूढ़ि-राक्षसी का विनाश,
अंधी प्रतीती का त्वरित ह्रास,
तुम शिवस्वरूप फिर नव-विकास
के रचो नये युग, नव वत्सर।
मिट जाय द्वैत, फैलें शम् के
शुभ भाव पुन: 'हर हर बम्' के,
ऊँ ' सत्यं शिवं सुन्दरम्" के
मंजुल रव से हो विश्व मुखर।