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मलयोच्छ्वास / रामगोपाल 'रुद्र'

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श्रद्धा तो बहुत मिली जग से, थोड़ा-सा प्यार कहीं मिलता! !

मैं जहाँ गया, 'जय हो, जय हो' वन-वन के पंछी बोल उठे,
दल-फल-किसलय-कलि-मुकुल-कुसुम खिल-खिल खुल-खुल
मुँह खोल उठे,
वन-वल्लरियाँ मकरंद-विकल, गुल्मिनियों का अंचल सरका,
दूबों का यौवन दमक उठा, मानस के सरसिज डोल उठे;
आँखें तो बहुत मिलीं, लेकिन उर का उपहार नहीं मिलता।

फूलों की धूल-भरी शोभा सिहरन से सद्य: स्नात हुई,
रवि की अनुरागमयी नलिनी कुछ लाल हुई, अवदात हुई;
मद-गंध-अंध मैं गंधवाह जिस ओर चला, रस-घट छलका,
छू दिया जिसे वह स्वर्ण हुआ; छू गयी रात, मधुप्रात हुई;
पर मैं जिसमें 'मैं' को छू लूँ, ऐसा अभिसार नहीं मिलता।

रोमांच हुआ सर में, सरि में, कुवलय-कुल के कल-केसर में,
मेरी सुख-सन्निधि से जागी रस-रंग-तरंग चराचर में;
सबने जाना, मैं राजा हूँ, मस्ती का और जवानी का;
नदियों ने केवल ज्वार लखा, ज्वाला देखी कब सागर में!
थम जाय जहाँ हलचल मेरी, ऐसा आधार नहीं मिलता है।

थोड़ी-सी लू चल जाती है, संसार विकल हो जाता है,
वह मेरी ही अँगड़ाई है, जीवन जिसमें सो जाता है;
संयम की भी हद होती है, कब तक मन को बाँधे कोई?
लाचारी है, खो जाता है, रो आता है, रो जाता है;
दुनिया में तो रोने का भी खुलकर अधिकार नहीं मिलता।