कहाँ गयी अब वह होली री, कहाँ गयी अब वह होली?
होली खेली थी रामचन्द्र ने, लंका क्रीड़ाभूमि बनी,
जब रीछ-वानरों के सँग भी संगठित-शक्ति की भंग छनी,
अन्यायों की होलिका जली, रिपु-मुंड उड़े चिनगारी-से,
जयध्वनि होली-धम्मार बनी, रँग गयी रक्त से रण-अवनी;
होली वह थी, जिसने बरसों की दिली गाँठ उनकी खोली,
उर-उर में कब से पड़ी गाँठ क्या खोल न देगी वह होली?
होली खेली थी वीर पार्थ ने, कुरुक्षेत्र था रंगस्थल,
योद्धादल होली का जुलूस था, पिचकारी गांडीव विकल,
अबरख-से बाण बरसते थे, कुंकुम-से कटे मुंड लुटते,
हर एक सूरमा जंग-रंग की भंग डटाये था पागल;
जब काल-पात्र की लाली में हर दिल ने कालिख थी धो ली,
कालों को लाल बनानेवाली कहाँ गयी अब वह होली?
होली खेली थी बुद्धदेव ने, बोधगया-वटवृक्ष तले,
ज्ञानाग्नि प्रज्वलित हुई और जर्जर भव के भ्रमजाल जले,
बस प्रेम अहिंसा कि लय में बजने ऐसा धम्मार लगा,
' बुद्धं, धम्मं, संघं शरणं अनुगच्छाम: स्वर-स्रोत चले!
निर्वाण-लुब्ध कोने-कोने से निकली होली की टोली,
भिक्षुक भगवान् बने, भूपों के कर में थी भिक्षा-झोली।
हल्दीघाटी की होली का किस आर्य-हृदय को है न दाप?
कैसे भूला जा सकता है वह अमर खिलाड़ी श्री प्रताप?
झालों समान तलवारें थीं, करताल ढाल के बजते थे,
'बम् बम् हर हर' का फाग मचा ढोलक-ध्वनि चेतक-चटक-टाप!
वह स्वतंत्रता कि भंग, त्याग की मिश्री थी जिसमें घोली,
पी लो, पी लो, ओ नौनिहाल पी लो, खेलो असली होली!
अब द्वेष-फूट के काठ कटें, कायरता कि होलिका जले,
हर जोर-जुल्म की धूल उड़ाता दलित-वर्ग जय बोल चले;
आग्रह हो सत्य-अहिंसा से रँग देने का दानवता को
बलि-भाव-भंग पी, रंग-अंग, घर-घर से निकल चले पगले;
होवे मंगल का अनुष्ठान, प्रति भाल जड़ी हो जय-रोली,
ओ अलबेले माँ के सपूत, खेलो, खेलो ऐसी होली!