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धूप / शिवनारायण जौहरी 'विमल'

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आदमी के स्वास्थ्य की संरक्षक
पेड़ पौधों के हरे भरे संसार
की ज़िन्दगी है धूप।

प्यास की लपटों में रहती है धूप
सांस की गहराइयों में धूप
आक्रोश की आँखों में धूप
आदमी धूप है औरत घनी छाया
ठंडी धूप जला देती है अलाव
जलती धूप में सब ढूँढते हैं
छाव बरगद की।

धूप नहीं जानती कि
सूरज से उसका रिश्ता क्या है
पर वह जानती है कि रोशनी
उसकी सौतन नहीं है सहेली है
वह सबकी है सबके लिए है
पर किसी की भी नहीं।

मुलायम रेशमी आचल लपेटे
एक स्त्री, रूप की रानी सुहानी
घर घर बैठ आती है पर
किसी से कोई रिश्ता पालती नहीं।

चलती रहती है सुबह से शाम तक
इस गाँव से उस गाँव तक
एक देश से दूसरे देश तक
थक जाय तो खुली छत पर
या हरे चौगान में लहंगा फैला कर
तनिक विश्राम करने बैठ जाती है।

उसका अपना कोई घर है ही नहीं
न झोपड़ी न प्रासाद न अट्टालिका
वह नहीं जानती कि वह किसके लिए है
फिर भी जीती है सब के लिए
 
अँधेरा रास्ते में आजाय
कुचल देती है पांव से डरती नहीं
कभी बादलों से हारती
प्रतीत होती है पर हारती नहीं
दिन भर काम करने के बाद
सो जाती है रात को॥