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ग़ुलामी / शिवनारायण जौहरी 'विमल'

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तब "में" मेरा कुछ भी
नहीं था मेरे पास
"मेरा" शब्द तो सुना ही नहीं था
तृष्णा प्यास चिंता
हाथ बाँधे खड़े रहते थे
शरीर कितना स्वच्छ निर्मल था
मां की गोद में
कितना सुरक्षित
कितना आज़ाद था।

माँ की गोद से
उतर कर पैरों पर
खडा होने लगा जब
स्टीकर से चिपक गए
वे सब मेरे बदन से
चौकीदार गुलामी
करने लगा उनकी
आजादी हवा में उड़ गई।

कोई बिरला अछूता
बैठा रहा माँ के सामने
बम गिरते रहे आँगन में
कोई फूटा नहीं
कोई स्टोकर नहीं था
उस भक्त के उजले बदन पर।

मेरे चारों तरफ़ स्टीकर का
जंगल ऊग आया है
ज़िन्दगी हो गई उसको काटते
"में" को बदन से
विलग कर पाई नहीं
पैनी धार हंसिए की।

कितना सुरक्षित था आज़ाद था
कैसे जाऊँ माँ की गोद में वापस
समय कभी लौटा नहीं पीछे
गुलामी यूं चिपक कर रह गई॥