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नाज़ / रामगोपाल 'रुद्र'

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खोकर भी तुमको खोने का नाज़ नहीं मैं खो पाया हूँ।

तुम आये, मधुमास पधारा, लाल-लाल फूटे प्रवाल-दल
और, आज यह भी दिन है, जब रंग न रूप न राग न परिमल;
पतझर में भी आज मगर वह साज नहीं मैं खो पाया हूँ।

तुमने खेल जिसे समझा था, खेलों की ही मौत हो गयी,
रोती ही रह गयी जवानी, एक कहानी सौत हो गयी,
मन की लाज गयी, पर दिल का राज नहीं मैं खो पाया हूँ।

घायल मेरा प्राण-पखेरू उड़ने से लाचार हो गया,
ऐसा तीर तुम्हारा आया, लगा और उस पार हो गया;
तीरन्‍दाज़! तुम्हारा वह अन्‍दाज़ नहीं मैं खो पाया हूँ।

मैं क्या जानूँ गीत और धुन? तुम से ही सब कुछ पाया था,
दुहराता हूँ आज वही लय सुर से जो तुमने गाया था;
राग नहीं रह गये, मगर आवाज़ नहीं मैं खो पाया हूँ।