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पंछी बोले / रामगोपाल 'रुद्र'

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पात-पात पर किरणें नाचीं, डाल-डाल पर पंछी बोले–

" शयन तुम्हारा सर्वनाश है, अवसर पर चुप रहना कैसा?
प्रबल देख प्रत्यक्ष पाप-अन्याय हाय! चुप सहना कैसा?
सोते ही तुम रहे और लुट गया तुम्हारा माल-खजाना;
जान-बूझकर महामोह की प्रलय-धार में बहना कैसा?
तन्द्रा की इस विषकन्या का आलिंगन-सुख त्यागो, भोले!

" हिम्मतवाले दाँव लगाकर लूट रहे जीवन की बाजी,
और एक तुम हो कि एक मत पर कोई भी जहाँ न राजी;
जागी महाक्रांति पश्‍चिम में, आग लगी पूरब के नभ में,
मुल्ले, लेकिन, मस्त पड़े हैं, पिंगल छाँट रहे पंडाजी,
जीवन है संग्राम, मृत्यु विश्राम, मौत मत माँगो, भोले!

" वीरों की यह भूमि तुम्हारी, वीरभाव आकाश तुम्हारा!
वीरों के वंशधर वीर तुम, वीरों का इतिहास तुम्हारा!
चप्पा-चप्पा भूमि यहाँ की वीरों के शोणित से तर है;
आदर्शों पर शीश कटाना रहा सदा उल्लास तुम्हारा;
आज तुम्हीं, लेकिन, भय से हो भीत, भीत मत भागो, भोले!

" खाक छानते खोहों की, जंगल खँगालते चले तुम्हीं तो!
मृत्यु-अंक में खेल, पले हो तलवारों के तले तुम्हीं तो!
जीवट ही जीवन है, जीना तुमसे ही जग ने सीखा है;
विश्‍व-व्योम के घटाटोप में तड़िद्‍दीप बन बले तुम्हीं तो!
आश आज भी तुम्ही विश्‍व की, एक बार फिर जागो, भोले! "