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सावधान / रामगोपाल 'रुद्र'

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जाग रहा तूफान, माँझी, सावधान!

चलने को रात-रहे तुम चल दिये,
ताक गगन के तीर, भँवों पर बल दिये
भीषण प्रलयी भाव-भ्रमों को भाँपते,
चावों के पाँवों से सागर नापते
आप बना था यान, लहरों क उफान।

घोर अमा का जोर, तिमिर सब ओर था,
तारों के मन में भी कोई चोर था;
सुन तट का आह्‍वान, चले तुम ज्वार पर,
स्वर्णोदय-सा देख क्षितिज के क्षार पर;
जोह रही थी आँख, आँखों का बिहान।
देख तुम्हारा केतु, घटा घुमड़ा गई;
देख तुम्हारा तेज, तड़ित् शरमा गई,
देख तुम्हारा वेग, हवा घबरा गई;
देख तुम्हें मँझधार, लहर चकरा गई;
पर न रुका अभियान, भा-रत, ओ महान्!

बहता बेड़ा पार लगाना है तुम्हें;
आँधी में मधु-दीप जलाना है तुम्हें;
चमके प्राची-चक्र कि लोक अशोक हो,
भूमण्डल पर राम-राज्य का लोक हो!
बनो शान्‍ति के मान, भव के स्वाभिमान!