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सत्यरथ / रामगोपाल 'रुद्र'

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बढ़ते चलो, हे सत्यरथ! बढ़ते चलो, बढ़ते चलो।

हर ओर बादल छा रहे,
घहरा रहे, हहरा रहे,
काले क्षितिज के क्षेत्र में
विद्युद्‍ध्वजा फहरा रहे;
धमका रहा पर्वत-शिखर,
शर छोड़ निर्झर के प्रखर;
बस, सावधान! वहीं ठहर!
गुर्रा रहे दिग्‍दिङ्‍ मुखर;
नटराज के दृग से कढ़ा,
भूचाल के रथ पर चढ़ा,
तूफान को ललकारता
संवर्त आता है बढ़ा;
पर, कढ़ चले, तब तर्क क्या? हे क्रांतिपद! कढ़ते चलो।

क्या-क्या न दुख तुमने सहे!
सागर उबलते ही रहे,
दिग्गज मचलते ही रहे,
घन पवि उगलते ही रहे;
दो-टूक आशा हो गई,
नौका तमाशा हो गई,
हर डाँड़ छूटी हाथ से,
पतवार टूटी, खो गई;
ऐसे विकट परिवेश में,
उद्धत प्रलय के देश में,
हिचके न तुम, पिचके न तुम,
जब मृत्यु के आश्‍लेष में,
तब आज क्या रुकना, हठी! हर विघ्न से लड़ते चलो।

दावाग्नि की भीषण लपट,
उत्कट प्रभंजन की झपट,
वन के विकट संकट-शकट
सब एक भ्रृकुटि से डपट,
किस विश्‍वजित् अभिमान से
बढ़ते चले तुम शान से!
अणु के प्रलय-हयमेध में
मनु के अभय अभियान-से
कि निरख जिसे नभ झुक गया,
रवि सारथी भी रुक गया;
पथ में पड़ा जो वक्र ग्रह,
वह लुक गया, या, चुक गया;
उस गर्व-गति से आज भी अपना गमन गढ़ते चलो।

धधके ज्वलन, न जला सके;
उखड़े पवन, न उड़ा सके;
उमड़े अतल, न डुबा सके;
रजकण तुम्हें न मिटा सके;
आकाश भी ख़ुद खो गया,
लय-सा तुम्हीं में हो गया,
स्वर में तुम्हारे गूँजकर
कुछ हँस गया, कुछ रो गया;
तुमसे विजित हर तत्व की
जड़ शक्‍ति क्या, अमरत्व भी
नारे लगाने लग गया
जय हो मनुज के सत्व की!
उस कीर्ति को अपने रजत-बलिदान से मढ़ते चलो।