कविता लिखी नहीं जाती
वह तो बुनी जाती है
कभी नेह के धागों से
तो कभी पीड़ा की सेज पर
जैसे एक स्त्री बन जाती है मिट्टी
रोपती है देह में नंवाकूर को
वैसे ही कविता का होता है जन्म
ह्रदय है उसके पोषण का गर्भ
जब उतारी जाती है पीड़ा कागजों पर
कुरेदता है एक कवि कछुवे की पीठ
बैठता है आधी रात को क़लम के साथ
घसीटता है ख़ुद को बियाबान के नीरव अकेलेपन में
नही देख सकता है वह अपने इर्द गिर्द
जिन्दा लाशें मरे हुये वजूद की
कचोटता है अपने क़लम कि स्नाही से
उन्हकी आँखो की पुतलियाँ को
रखना चाहता है अपनी आत्मा पर
एक कविता रोष और आक्रोश की
जब प्रेम झडने लगता है कवि की क़लम से
नदी की देह पर उतर आता है चाँद
प्रेमिका का काजल बहता है इन्तजार में
और कवि जीता है प्रेम की सोंधी-सोंधी ख़ुशबू को