नाविक मेरे, तू मत खे रे!
बहने दे उन्मन, तिनके-सा
धार जिधर ले जाय तरी को;
तिरने दे दुखनीलसलिल में
हिमताड़ित सरसिज-सफरी को;
तू मत धर पतवार, मुझे ही धरने दे कुछ सपने मेरे!
घिरती आती रात, क्षितिज पर
स्याही-सी छाती जाती है;
घायल तट की घात उलटकर
धारा को डसने आती है;
यह न गरल-संचार, यही है मीरा का अभिसार, चितेरे!
डाँड़ धरूँ क्या, थाहूँ भी क्या,
मन ही जब न कहीं लगने का!
धुँधला कोई कूल कहीं पर,
चारा है मन को ठगने का!
रहने दे मँझधार, यहीं यह नाव लगेगी पार, सवेरे!