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कविता-3 / शैल कुमारी

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रोज़ आते-जाते
क्रिमेटोरियम मुझे टोकता है
मैं भी धीरे से
उससे कह देता हूँ
अभी सब्र करो (इंतज़ार करो मेरे करने का)
और वह हँस पड़ता है
मैं मुट्ठियाँ ऊँची करके
ज़ोर से चीख़ पड़ता हूँ
अभी मैं किसी निर्णय पर नहीं पहुँचा हूँ
मेरे भटकाव अभी बाक़ी हैं
मेरा बचपना अभी शेष है
पर वह है कि हँसे जाता है
निरंतर बढ़ती जाती
उसकी दमघोट हँसी
मेरे इर्द-गिर्द लिपट जाती है
अचानक मुझे लगता है
मैं जकड़ लिया गया हूँ
किसी नागपाश में
मेरी हर शुरुआत
मुझे क्रिमेटोरियम ले जा रही है
मेरा हर पड़ाव,
क्रिमेटोरियम के पास बन रहा है
और यह भी ख़ूब है
मेरी इजाज़त के बिना ही
क्रिमेटोरियम मेरे अंदर उग आया है।