कुछ अनोखा रिश्ता है रजनी का भोर से,
वरना क्यों पीछा करती ज्यों बँधी डोर से।
कैसा अद्वितीय साथ है सौन्दर्य का मोर से,
कैसा यह अद्भुत प्रेम है चाँद का चकोर से।
धरती व गगन जुड़ा है क्षितिज की कोर से,
निहार ये अदृश्य बंधन, रह जाते विभोर से।
एक अनोखा रिश्ता है डाल का हर पात से,
झड़कर मिट्टी में घुल, मिल जाता है तात से।
सागर से रिश्ता निभा तट सहता आघात से,
पक्षी के कलरव का अनुपम रिश्ता प्रभात से।
मोती सीप का रिश्ता उपदेश दे निष्णात से,
आत्मा का बहिरूप हर, जाना जाता गात से।
धरा से रिश्ता निभाती, रेत फिसलती मुट्ठी से,
स्नेह बंधन संतान पाए, माँ के दूध व घुट्टी से।
उमंग-उल्लास-पर्व का, चंचल रिश्ता छुट्टी से,
पहाड़ ऊँचा उठ जाता, कण-कण की मिट्टी से।
कलम का मजबूत रिश्ता, है तख्ती की पट्टी से,
ईश्वर से सबका रिश्ता, संदेश स्मरण चिट्ठी से।