मृत्यु जो हम मानते हैं जीवन पर्यंत,
पार्थिव शरीर और साँसों का अंत।
विचार तनिक कर देखो तो मानव,
कब कब क्षय था जीवन का तंत।
न बची जीवन में जब भी आशा,
अपने सब देखते दुर्दांत तमाशा।
क्या जीवन जीवन ही तब जाना,
प्रतिष्ठा मरण की क्या परिभाषा।
विफलता ने जब किया भयभीत,
परास्त हौंसला गयी नियति जीत।
अधीर हृदय आस्था विश्वास लुप्त,
उत्साह मृत्यु अदृश्य थी मनमीत।
जब कर्म त्याग हथियार है डाला,
रणभूमि छोड़ी देख पाँव का छाला।
ऋण या भिक्षा रहे जीवन आधार,
स्वाभिमान की मौत से पड़ा पाला।
किंचित विवेक इस बात का कर ,
नहीं तू पशु, सर्वोत्तम प्राणी तू नर ।
मृत्यु तो सबकी सदा सुनिश्चित,
पर उसके आने से पहले न मर ।