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कंकरी / आरती 'लोकेश'

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बजरी की वह राह नहीं है, चिकनी दोमट मिट्टी है,
कितना ही पग ध्यान धरो, चुभती कंकर की गिट्टी है।

सतर्क ही बढ़ते जाना है, निरर्थक है पीड़ा अवसाद,
हो लक्ष्य केंद्रित याद रहे, सतत कदम ताल निर्बाध।
ठहराव नहीं वारि की वृत्ति, तब ही धारा बनती है,
गिरती जब गिरिशिखा से, चोट शिला पर करती है।

उद्देश्य नहीं ग्रीवा उत्तुंग, पगतल लगे भूतल हेय,
हर डग से पूर्व उसे नमन, जो नर्म कुशा सेवा ध्येय।
नम्रता आभूषण तरु का, भार पड़े झुक जाता है,
दया-धर्म और दान वरण, चोट सह फल देता है।

दूरस्थ गंतव्य मार्ग कठिन, धैर्य शक्ति बस एक मंत्र,
निश्चल कर मन चंचल को, निश्छल कर्म मूल यंत्र।
बूँद-बूँद से है घट भरता, शीतल हो प्यास बुझाता है,
माता की नवमास प्रतीक्षा, शिशु जन्म तब पाता है।

परीक्षा सहिष्णुता की है, बिंधे कंटक से न हो रुष्ट,
कर्त्तव्यबद्ध ये देवें दृढ़ता, बल प्रदेय सांगोपांग पुष्ट।
द्रुत बहाव को थामे रखना, कंकरी ही कर सकती है,
विनाश गति से रक्षा हेतु, बाधा बन साधन करती है।

पथ की कंकरी है समपूज्य, ठेल आगे मुसकाती है,
कष्ट अग्नि में भस्म स्वर्ण, कुंदन कीमत बढ़ जाती है।
आभार प्रकट करो उन का, चुभते जो गिराते रहते हैं,
कृतज्ञ रहो अड़कर आड़े, प्रगति को उकसाते रहते हैं।