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वारिद मन / आरती 'लोकेश'

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बनता हूँ बिगड़ता हूँ,
बन-बनकर पुन: बिखरता हूँ।
बनने-मिटने की क्रीड़ा में,
कुछ अंश-अंश निखरता हूँ।

थम-थमकर थोड़ा लुटता हूँ,
जल से जल-जलकर उठता हूँ।
गढ़ने-चढ़ने-जमने के क्रम,
हिम्मत कर फिर से जुटता हूँ।

वाष्प मिलन को बाँह पसारे,
पिक मेघ को ऐसे तरसता हूँ।
धरती की तृषा तृप्ति को,
तब टूट के मेह बरसता हूँ।

चातक हित झर-झर झरता हूँ,
पपीहे पर टिप-टिप गिरता हूँ।
बहने दो वृथा न ये मौसम,
जग से यह विनती करता हूँ।

समेट लो छत या आँगन में,
रच बाँध सरिता पावन में।
रोक कर मेरा तीव्र प्रवाह,
रम जाने दो भू-कानन में।

वारिद-मन हूँ, उन्मादी हूँ,
मनमौजी मलंग दीवाना हूँ।
रक्षा हित यत्न-कर्म करो तो
फिर-फिर आऊँ, वो सयाना हूँ।