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बाहर आओ / ब्रज श्रीवास्तव

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रंगमंच से ज़रा बाहर तो आओ
स्वप्नलोक और रोज़मर्रा से खिसको तो इधर उधर
अपने ही दोस्तों और प्रशंसकों
के घेर से बाहर रखो तो पाँव

सुनो, कान लगाकर।
अनेकों ने तुमसे निराशाएँ पाईं हैं नाहक़
वे तुम्हें धिक्कार रहे हैं
और तुम संवेदनशीलता के धंधे से
बटोर रहे हो
इतना यश, इतना धन,
इतने मौके.