जिसके पैरों को धोकर
बहती है सतलुज
आसमान को छूता है बर्फ़ का मुकुट
छाती चीर कर गुजरती
असंख्य गाड़ियां प्रतिदिन
शेर की तरह दहाड़ लगाए
अविचल खड़ा
तराण्डा ढांक
शायद यही कह रहा है
इन्सान के हाथ की
ताकत और करामात का
जीवन्त दस्तावेज़ हूं मैं
गवाह हूं उस ज़माने का
जब आदमी मशीन से नहीं
हाथ से काम करता था
मैं तब भी अडिग रहा
जब चीर डाला मेरा जिगर
बांट दिया दो हिस्सों में
टूट गया मेरा गरूर
हाथो-हाथ बन गयी सड़क
राम सेतु की तरह ।
आज मैं एक आश्चर्य हूं
मह्सूस करता हूं लोगों की हैरानी
कैद हूं अनगिनत आंखों में
सजा हूं असंख्य घरों के
कमरों की दिवारों पर
यहां अक्सर सुनता हूं मैं
लोगों की जुबानी
अगर हाथ हरकत में हो
तो पत्थर क्या?
पहाड की भी शक्ल
बदल सकती है ।
अब मेरी तो यही कहानी है
मैं तरांडा ढांक
जिससे खौफ़ज़दा रहते थे सभी
इतना खतरनाक
जहां परिन्दा भी नहीं
रुक सकता था
आज सुगम रास्ता हूं
बशर्ते हर राही
सुगमता से चले