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गुच्छी / सत्यनारायण स्नेही

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जिन्हें नहीं मिलता
भर पेट अन्न
वे पोटली में बांधकर सूखी रोटी
सुबह से शाम
ढूंढते हैं गुच्छी
घनघोर जंगल में
गरीब की रोजी
अमीर की रोटी
हर साल खास मौसम में
उगती है एक बार
बीहबान जंगलों में
वे नहीं जानते
गुच्छी का स्वाद
गुच्छी के असली दाम
झोले से प्लेट में
पहुंचते ही गुच्छी
भूख नहीं मिटाती
ताकत बढ़ाती है ।
गुच्छी
प्रतिफल है
ज़मीनी और मौसमी
हरकतों का
जिसके नहीं होते बीज
नहीं होती काश्तकारी
जबकि
आदमी पहुंच गया है
मंगल पर
समेट ली है सारी धरती
मुट्ठी में
खोज लिये हैं
सृष्टि के कण-कण
गुच्छी एक पहेली है
उगा नहीं सका आदमी
अभी तक
इसका एक बीज