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जब बड़े होते बच्चे / सत्यनारायण स्नेही

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पित्ता की उम्मीद और चिंताओं के बीच
धरती पर सरकते
थाम कर अंगुली
बस्ता उठाए पंहुचते हैं स्कूल
हर साल भारी होते बस्तों
छोटे होते जूत्तों के बीच
बड़े होते बच्चे।
पित्ता की खींची लकीरों से
आगे निकल उकेरते
अपनी दुनिया का रेखाचित्र
अपने स्वप्न-संसार में
आशियाँ खोजते हैं
बड़े होते बच्चे।
जिम्मेवारियों के बोझतले
झुकते पित्ता के कन्धे
बच्चों की आंखों से
देखते हैं सपने
आकाक्षांओं और तस्ल्लियों में
हर शाम बतियाते
उनकी कहानियों में
खुद को समेटकर
आधी नींद सोते हैं
हर रात मां-बाप
जब बड़े होते बच्चे।
उनके लिए हैं आधुनिक संस्थाएँ
नित नए कारोबार
जहाँ क्षीण होती संवेदनाएँ
खो जाती रिश्तों की पहचान
खत्म होती नियत अवधारणाएँ
विस्मृत संस्कार
समय की चाल में
संवारते हैं अपना जीवन
बड़े होते बच्चे।
कविता में
उनकी दूरस्थ चमक से
खुश होते मां-बाप
करते हैं सिर्फ़ इंतज़ार
ढलती उम्र में
चुनौतियों से
एकाकी सरोकार
तन्हाइयों में
अलापते हैं
जीवन का राग
जब बड़े होते बच्चे