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वे / शीतल साहू

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है वे इस धरा पर सदियों से
जी रहे है प्रकृति के साथ
वनों में फिरते और विचरते
भूख और प्यास से जूझते
अनगढ़ पत्थरों को गढ़ते और तराशते।

कोदो कुटकी से भूख मिटाकर
महुआ की मादकता से झूमकर
मांदर के थापो में थिरककर
स्वछंदता के पर लगाकर
चेलिक मोटियारी सब साथ मिलकर
झूमते नाचते सभी थक हारकर
सो जाते वे सारे गमों को भुलाकर।

कौन कहता है उन्हें मूढ़ और अज्ञानी
कौन कहता है, वे करते हुड़दंग और मनमानी
प्रकृति प्रेम से पूरित, वे है आदि विज्ञानी
है वे कर्मठ और नितांत स्वाभिमानी
सरल सहज वे, सरस मधुर है उनकी भाखा बानी
जल जंगल बिन, जीवन उनका है बेमानी।

उनके जीवन का हर क्षण, हर काज
है प्रकृति से प्रेरित, उनका हर रीति रिवाज
है पुत्र समान जीवन उनका
करते निर्वाह, रखकर यह ध्यान
कि माँ प्रकृति को, हो ना नुकसान।

चाहे मछली हो या बटेर तीतर
चाहे लकड़ी पत्ते हो या कांदा चार
चाहे टोटम हो या जनम मृत्यु संस्कार
चाहे खेतीबाड़ी हो या मिट्टी झाड़ियों का घर
हर कारज में करते वे, प्रकृति के संतुलन का व्यवहार।

आयुर्वेद के सुश्रुत और चरक समान
औषधि पौधों का रखते वे प्राचीन ज्ञान
जड़ी बूटी का है उनको अद्भुत भान
पारंपरिक ज्ञान से करते कई रोगों का निदान
बीहड़ और दुर्गम देते लोगों को वे जीवन दान।

कमी और अभाव से लड़ते
भीषण कष्टों को वे सहते
शक्ति के दो पाटो के बीच पिसते
फिर भी नाचते और गाते
मस्ती की धुन में गुनगुनाते
जी रहे है वे आज भी हँसते और खिलखिलाते॥