उन्नीस सौ उनतीस में जनमे
तिथि थी छह, मास अक्टूबर
पिता थे उनके धनीराम जी
माता थी, ममतामयी भाग्यवती देवी।
थे बिल्कुल सरल सहज बचपन से
कहती 'रामेश्वर' प्यार से मैय्या
नाम तुलेंद्र से जाने जाते
चार भाइयो के थे सबसे बड़े वह भैय्या।
बचपन में पिता संग पहुच गए वे वर्धा आश्रम
मिला बापू का प्रेम सानिध्य, आकर उन्हें सेवाग्राम
सेवा आश्रम में करते वे कर्णप्रिय भजनों का गान
मिलता बापू से विशेष स्नेह और सेवा का ज्ञान।
एमएससी तक अर्जित की शिक्षा का ज्ञान
थे अति निपुण और बड़े मेधा वान
धर्म, दर्शन का भी था उनको ज्ञान
करते थे बाल्यकाल से वह चिंतन और ध्यान।
शुद्ध गणित में पाकर शिक्षा
रच डाला महाविद्यालय में इतिहास नया
पाकर सर्वोत्तम अंक कक्षा में
गढ़ डाला अटूट कीर्तिमान नया।
कर मेहनत, बड़ी निष्ठा और लगन से
उत्तीर्ण कर लिए 'आईएएस' की कठिन परीक्षा
पहुँच चुके थे गौरवशाली पद तक वे
पर मन में थी त्याग और समर्पण।
सो छोड़ दिए वैभव और गौरव का जीवन
तज मोह माया, किये संन्यास का वरन
स्वामी शंकरानंद से पाकर मन्त्र दीक्षा और ज्ञान
तुलेंद्र से ब्रम्हचारी 'तेज चैतन्य' गये वह बन
कर दिए परमार्थ में, अपना जीवन वह अर्पण।
ब्रम्हचारी बन, रामकृष्ण भावधारा में किये प्रवेश
नाम अनुरूप ही था उनमे प्रतिभा और ज्ञान का तेज
पहुँच हिमालय स्थित स्वर्गाश्रम, किये वे साधना कठिन
लगे रहे साधना सिद्धि में और करते रहे वे आत्मिक उत्थान।
पाकर स्वप्न में, स्वामी त्रिगुणातीतानंद जी से प्रेरणा
ले संकल्प, चल पड़े अपने जन्मभूमि की ठौर ठिकाना
बनाने विवेकानंद प्रवास की चिरस्मरणीय संरचना
मिला उन्हें बड़ो का सान्निध्य और अनुचरो का सहयोग समर्पण
लेकिन लक्ष्य विकट था और मार्ग बड़ा कठिन
थी परीक्षा की घड़ी, पर होना था उनको उत्तीर्ण।
कर दिए मंदिर निर्माण के जमापूंजी की दान,
जब हुई अकाल पीड़ित, मानव की जान।
करते रहे मानवता की सेवा और जतन,
जब बांग्लावासी आये, पाने आश्रय और शरण।
जी जान लगा दी समाजहित में, करते रहे वे कुष्ठ उन्मूलन
सिद्ध किये अपने कर्मो से, जीव सेवा है शिव सेवा समान
होकर ब्रम्हानंद में लीन, बढ़ाते रहे मंदिर निर्माण की चरण
कर दिए स्थापित आश्रम और किये उसमे प्राणों की सृजन।
जन्मभूमि की ऋण चुकाने
जन जन में धर्म की अलख जगाने
बीहड़ में ज्ञान और शिक्षा की ज्योति जलाने
शोषण, क्षुधा और अशिक्षा मिटाने
मनुष्यो में स्वावलंबन और स्वाभिमान जगाने
शांति और मानवता का पाठ पढ़ाने
मानव को आत्मोन्नति की मार्ग दिखाने
तज श्वेत वस्त्र, चले गेरुआ वसन वह धरने
ब्रम्हचारी से सन्यासी होकर, स्वामी आत्मानंद वह बने
हो स्वयं से दीक्षित, जन्मभूमि के विवेकानंद लगे वह कहलाने।
अदभुत वक्ता वे, कोमल मधुर थी उनकी वाणी
ज्ञानी तपस्वी, थे वह रामायणी
गीता पंडित और कर्मयोगी बन
कुशल प्रशासक हो, किये संघ का श्रेष्ठ संचालन।
परमहँस के परम शिष्य बन
कोने कोने में किया भ्रमण
उनके ज्ञान और दर्शन चिंतन का
जन जन ने था किया श्रवण।
स्वामी जी कहते अक्सर
पराधीन को मिले न सुखकर
अधीन स्वयं के है जो नर
मिलता आनन्द उन्हें स्वर्ग से बढ़कर।
करते थे ईश्वर का दर्शन,
चित्त को कर आत्मा में लीन
तारीख सत्ताईस, माह अगस्त
दुखद नवासी का वह सन
वो आत्म ज्योति, अनंत में हुए विलीन।