बड़े-बड़े पेड़ों की यादों के रहित
बचपन की यादें कितनी अधूरी हैं
वो एक बड़ा-सा पेड़
शायद पीपल का या फिर नीम का था
हर मौसम में झूले की रस्सियाँ बँधी रहती थी
उसकी शाखों पर
चौपाल में हथाई करते दादा-नाना
बच्चों को इन पेड़ों के हवाले कर
इत्मीनान से हुक्का सुड़कते
घर में माँएँ कितने ही काम निबटा देती
इस दौरान
जब पक्की सड़क निकली गाँव से
पेड़ रस्ते में आ गया
दरअसल पेड़ तो वहीं था
सड़क ही उधर से पास हुई
वो सूना तिराहाज भी करता है सवाल
वो जो एक संसार था
क्या हुआ?
ट्रेफ़िक के डर से अब बच्चे
कम ही निकलते हैं घर से बाहर
खुशियों का रंग पेड़ों-सा हरा था
या पेड़ थे बचपन से मासूम।