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अनुपस्थित / शचीन्द्र आर्य

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जो अनुपस्थित हैं,
वह कैसे हमें दिखाई देंगे, इसकी कोई तरकीब हमारे पास नहीं है।
ऐसा नहीं है, उनके न दिख पाने भर से उसके होने का भाव भी ख़त्म हो गया।

पर ज़रूरी है,
हम कभी महसूस कर पाएँ, जितने लोग दिख रहे हैं,
उससे कई गुना लोग, इन आँखों से नहीं दिख रहे हैं।
जैसे जितनी कविताएँ, कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र बना दिए गए,
उनसे कहीं अधिक उन मनों में अधबने या अधूरे ही रह गए।
जितनी किताबें छप सकीं,
उस अनुपात में बहुत बड़ी संख्या में वह कभी छप ही नहीं पाईं।

इसे मैं कुछ इस तरह देखता हूँ, जब हम नहीं थे,
यह समय ऐसे ही दिन को विभाजित करता रहा।
हमारे न होने से क्या वह अतीत शून्य हो गया?

कभी वह क्षण भी आएगा,
जब सामने होते हुए, कई लोग इस वर्तमान से भविष्य की तरफ़ चल देंगे।
उनका या हमारा आमने-सामने न होना, क्या हमें या उन्हें अनुपस्थित बना देगा?

जैसे जब कविता नहीं लिख रहा था,
या कुछ भी नहीं कह रहा था, तब भी मैं था।
वह प्रक्रिया भी कहीं मन में, मेरे अंदर चल रही थी।

बिल्कुल ऐसे ही यहाँ कुछ भी अनुपस्थित नहीं था।