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पुल होना / शचीन्द्र आर्य

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वह पुल एक शांत पुल था
किसी नदी के ऊपर नहीं। दो इमारतों के बीच हवा में टंगा हुआ-सा।
उसका जाना, उन नदियों के ऊपर बने पुलों से पानी का रुक जाना था।
वहाँ उमड़ते-घुमड़ते मौसम का ठहर जाना था।
यह दोनों इमारतों के बीच एक संवाद की असंभव संभावना बना रहा।

पुल मानवता के इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धि रही होगी।
इसने सैकड़ों पहाड़ियों के उतार-चढ़ाव नदी-नालों की
दूरियों को समेटकर दूर दिखने वाली जगहों को कितने पास लाकर खड़ा कर दिया।

पहाड़ इतने निकट आकर कितने प्रसन्न हुए होंगे।
सदियों से चुपचाप, थककर खड़े ऊबते रहे। अब वह इस एकांत को भर सकते थे।
सुख-दुख के साथी बनकर जीने का मतलब
उन्होंने पहली बार पुल के आने के बाद महसूस किया होगा।
महसूस किया होगा, कितनी बातें उनके अंदर अनकही रह गयी हैं।
वह उनके अंदर दिल तक उतरने वाली सीढ़ी बनकर आया।

एक हिसाब से यह हमसे उम्र में बड़ा रहा होगा। हम जब नहीं थे, तब यह था।
वह हमारी नींद में ही जाता रहा और हमें पता नहीं चल पाया।
शायद यह उसके चुपचाप चले जाने की कोई चाल रही होगी।
कि जब तक हम जागते, वह पूरा चला जाता।

अचानक आँख खुली। बाहर आया। देखा। वह आधा जा चुका था।

वह रोके से भी नहीं रुकता। उसने किसी को बताया नहीं कि वह जा रहा है।
उसने अपने जाने के ठीक पहले की शाम, अलविदा भी कहने नहीं दिया।
वह उस ढलती शाम के अँधेरे में
एक अधेड़ बूढ़े मेहमान की हैसियत ओढ़कर चुपचाप चलता गया
और हमारी आँखों के सामने हमेशा के लिए ओझल हो गया।

यह सब बातें यहाँ इसलिए भी लिखे दे रहा हूँ क्योंकि यह कोई ऐतिहासिक पुल नहीं था।
इसे इस किताब के अलावे किसी किताब में जगह नहीं मिलने वाली।
फ़िर सारा इतिहास तो इसी जगह के छिकाए जाने, थोड़ा सरक जाने के बीच है।