Last modified on 11 जनवरी 2021, at 00:46

सुखी आदमी / शचीन्द्र आर्य

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:46, 11 जनवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शचीन्द्र आर्य |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मेरे मन में हमेशा से एक सुखी आदमी की धुँधली-सी तस्वीर रही है।
कभी वह पिता के चेहरे से मिल जाती, कभी उसमें कोई शक्ल नहीं होती,
बस नाक, मुंह, कान और होंठ होते।

उस तस्वीर मिल जाने और उसके खो जाने के बावजूद
पहला सवाल यही था, यह सुख क्या है?

हम सब अपने लिए अलग-अलग सुखों की कल्पना करते हैं।
कभी लगता, अपनी कल्पना में सब अकेले होकर सुख ढूँढ़ लेते होंगे।

यह नींद सबका एकांत और सुख रच सकती थी,
जिसकी संभावना अब बेकार लगती है।

मैं तो बस ऐसे ही ख़याल में खोया किसी खाली कमरे में
मेज़ के सामने तिरछा बैठे हुए
वक़्त और मेहनत लगाकर लिखी गयी किताबों को पढ़ लेना चाहता हूँ।

उन्हें न भी पढ़ पाया, तब भी इसके बाद ही बता पाऊँगा,
जिसे अपना एकांत कह रहा था, वहाँ कितना सुखी था!