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अन्नदाता / श्रीविलास सिंह

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एक अलाव सुलगता है
कहीं भीतर,
पूरब के सिवानों से आती है
महुए और आम के प्राचीन जर्जर वृक्षों-सी
अछोर पीड़ा की आहट,
पत्तियों के धीरे से टूटकर गिरने की आवाज़ें,
जैसे कोई चुपचाप मौन रख जाता है फूल
किसी शव के पैरों के पास ।

रक्त पिपासु परजीवियों ने चूस लिया है
उसके खेतों में लहराते जीवन का रस,
उसके स्वेद के लवण से सम्भवतः
ऊसर हो चुकी है धरती
कर्म के पश्चात फल देने का सारा विधान
इक्कीसवीं सदी के किसी सरकारी कार्यालय की भाँति
सो गया है कर्तव्यहीनता की महानिद्रा में,
पवित्र मन्त्रों की अनजाने युगों से गूँजती प्रतिध्वनियाँ
कानों में उड़ेल रहीं हैं पिघला हुआ सीसा,
एक मरी हुई आभा से घिरा वह जो
अन्नदाता है सृष्टि का
किसी बुझ चुके यज्ञकुण्ड की अधजली समिधा सा उपेक्षित
यजमानों की कीर्ति पताकाएँ फहरा रहीं हैं दिग्दिगन्त
बलि पशु का निष्प्रयोज्य सिर
लुढ़का पड़ा है वेदी के उस पार,
शुचिता को मुँह चिढ़ाती क्रूरताएँ
अनायास ही धरती का स्वेत चीनांशुक
रंजित है अपने ही पुत्रों के रक्त से ।