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युद्ध / श्रीविलास सिंह

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रात के वनों में
बारिश आती है सहमी हुई-सी
जैसे चान्दनी पिघल रही हो धीरे-धीरे
और दूर तक फैले काले समुद्र में
टिमटिमा रही हों
मछलियों की आँखें ।

युद्ध अपने दाँतों को पैना करता
जब आकाश के दूर वाले छोर पर
रच रहा होता है
काले दिनों की पूर्वपीठिका,
किसी उफनाई नदी की
नीली पड़ चुकी देह
अनागत की विषाक्त पीड़ा से
ऐंठी होती है ।

कोई गिरता हुआ उल्कापिण्ड
लिख देता है आसमान पर
बिजलियों के संस्मरण और
सब कुछ मिट जाने के बाद भी
मुट्ठी भर प्रकाश बचा रहता है आँखों में
जैसे किसी के चले जाने के बाद भी
बचा रहता है
एक उजला एहसास देर तक ।

पहाड़ों की उदास और
एकाकी चोटियों पर
जहाँ अपने मजबूत कन्धों पर उठाए
वृद्ध-हिंसक लालसाओं का बोझ,
जाग रहे होते हैं कुछ युवक
राजनीति और कूटनीति से परे
अपने प्रेम की आकाशगंगा में तैरते
जैसे तैरती हैं काग़ज़ की कश्तियाँ
बच्चों की आँखों की नदी में ।

भावनाओं के कोमल तन्तुओं से बनती हैं
दुनिया की मजबूत दीवारें और
इतिहास के सबसे निर्जन पलों में
लिए याद होते हैं
मनुष्यता के दुखों की सृष्टि के
सबसे कुरूप निर्णय
और युद्धों का घोषित लक्ष्य हमेशा ही होता है
उन्हीं का हित
जो मिटा दिए जाते हैं
सबसे अधिक क्रूरता से
इन युद्धों के दौरान ।

बूढ़ी और नपुंसक महत्वाकाँक्षाएँ
होती हैं सबसे अधिक रक्तपिपासु
युवा सपनों के ढेर पर खड़े
तमाम तानाशाह
जब मानवता की लोरी
गुनगुना रहे होते हैं
तब लम्पट दीवारों के दोनों ओर
बह रही होती है पीड़ा की एक नदी
हत्या और ध्वंस की बाढ़
गुज़र जाने के बाद ।

रात के वनों में
अब भी पिघलती है चान्दनी
प्रेम का स्वप्न देखतीं
मछलियों की आँखें
अब भी सो जाती हैं चुपचाप
हमारी नींदों को सहलाती
अपने प्राणों की उँगलियों से ।

युद्ध अब भी जाग रहा है
पहाड़ों की उदास चोटियों पर
चाटता युवा स्वप्नों का रक्त ।