मौसम की रग-रग दुख रही है
अपनी ये धरती सूख रही है
पेड़ों से टूट गया है
धरती का नाता
झिंगुर भी चौमासे
का गीत नहीं गाता
बरखा रानी भी रूठ गई है
जबसे बादल ने है
अपना मुख मोड़ लिया
निर्झर ने भी है
नित झरना छोड़ दिया
मोर-पपीहे की वाणी देखो
देखो तो कैसी मूक हुई है
हरियाली का दामन
है झीना-झीना सा
पुरवाई का आँचल
भी छीना-छीना सा
मानवता खुद क्यों अपनी अगली
पीढ़ी को ही यूँ लूट रही है