हर रोज़ शाम चान्द
मेरे साथी की तरह
ऑफ़िस से निकलते ही
साथ हो लेता है
दोनों
गुमसुम-गुमसुम
पर बतियाते हुए ।
सड़कों पर की
चिलपों
पेड़ों बादलों की
लुका-छिपी
दिन भर की थकान भी
पर
अच्छा लगता है
उसक साथ चलना
गुमसुम-गुमसुम
पर बतियाते हुए ।
घर वाली अन्धेरी गली
टाते ही कसक सी
उठ जाती है जुदा होने के नाम पर
और
फिर कल मिलने के वायदे के साथ
विदा लेते हैं हम
गुमसुम-गुमसुम ।